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प्रतिज्ञा

'तुम्हें यह ख़याल भी नहीं होता कि उसकी और तुम्हारी कोई बराबरी नहीं? वह तुम्हारी सहेली बनने के योग्य नहीं है।'

'मैं ऐसा नहीं समझती।'

'तुम्हें उतनी समझ ही नहीं, समझोगी क्या?'

'ऐसी समझ का न होना ही अच्छा है'

उस दिन से सुमित्रा परछाई की भाँति पूर्णा के साथ रहने लगी। कमलाप्रसाद के चरित्र में अब एक विचित्र परिवर्तन हो जाता था। सिनेमा देखने का अब उसे शौक न था। नौकरों पर डाट-फटकार भी कम हो गई। कुछ उदार भी हो गया। एक दिन बाजार से बङ्गाली मिठाई लाये और सुमित्रा को देते हुये कहा--ज़रा अपनी सखी को भी चखाना। सुमित्रा ने मिठाई ले ली, पर पूर्णा से उसकी चर्चा तक न की। दूसरे दिन कमला ने पूछा--पूर्णा ने मिठाई पसन्द की होगी? सुमित्रा ने कहा--बिलकुल नहीं, वह तो कहती थी, मुझे मिठाई से कभी प्रेम नहीं रहा।

कई दिनों के बाद कमलाप्रसाद एक दिन दो रेशमी साड़ियाँ लाये और बेधड़क अपने कमरे में घुस गये। दोनों सहेलियाँ एक ही खाठ पर लेटी बातें कर रही थीं, हकबकाकर उठ खड़ी हुई। पूर्णा का सिर खुला हुआ था, मारे लज्जा के उसकी देह में पसीना आ गया। सुमित्रा ने पति की ओर कुपित नेत्रों से देखा।

कमला ने कहा--अरे! पूर्णा भी यहीं हैं। क्षमा करना पूर्णा, मुझे मालूम न था। वह देखो सुमित्रा, दो साड़ियाँ लाया हूँ। सस्ते दामो में मिल गई। एक तुम ले लो, एक पूर्णा को दे दो।


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