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प्रतिज्ञा

मानने लगीं। जब तुम मुझी को नहीं गिनतीं, तो यह बेचारी किस गिनती की हैं। भगवान सब दुख दे, पर बुरे का सङ्ग न दे। तुम इनमें से एक साड़ी रख लो पूर्णा, दूसरी मैं प्रेमा के पास भेजे देता हूँ।

सुमित्रा ने दोनों साड़ियों को उठाकर द्वार की ओर फेंक दिया। दोनों कागज़ में तह की हुई रक्खी थीं। आँगन में जा गिरीं। महरी उसी समय आँगन धो रही थी। जब तक वह दौड़कर साड़ियाँ उठावे, कागज भीग गया और साड़ियों में धब्बे लग गये। पूर्णा ने तिरस्कार के स्वर में कहा--यह तुमने क्या किया बहन! देखो तो साड़ियाँ खराब हो गई!

कमला--इनकी करतूतें देखती जाओ! इस पर मैं ही बुरा हूँ। मुझी में ज़माने-भर के दोष हैं।

सुमित्रा--तो ले क्यों नहीं जाते अपनी साड़ियाँ?

कमला--मैं तुम्हें तो नहीं देता।

सुमित्रा--पूर्णा भी न लेंगी।

कमला--तुम उनकी ओर से बोलनेवाली कौन होती हो। तुमने अपना ठीका लिया है, या ज़माने भर का ठीका लिया है। बोलो पूर्णा, एक रख दूँ न? यह समझ लो कि तुमने इनकार कर दिया, तो मुझे बड़ा दुःख होगा।

पूर्णा बड़े सङ्कट में पड़ गई। अगर साड़ी लेती है, तो सुमित्रा को बुरा लगता है, नहीं लेती, तो कमला बुरा मानते हैं। सुमित्रा क्यों इतना दुराग्रह कर रही है, क्यों इतना जामे से बाहर हो रही है, यह भी अब उससे छिपा न रहा। दोनों पहलुओं पर विचार कर उसने सुमित्रा

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