ठीक है; न तरीका ही ठीक है। कुछ भी ठीक नहीं। न उचित शिक्षा ही का प्रबन्ध है; न उचित क्रम ही का प्रबन्ध है; और न उचित तरीके ही का प्रबन्ध है। माँ बाप समझते हैं कि किताबों से जो ज्ञान प्राप्त होता है---जो शिक्षा मिलती है---बस वही विद्या है। विद्या का सीमा वे इतनी ही परिमित समझते हैं। इसी ख़याल से वे अपने छोटे छोटे बच्चों के हाथ में समय से बरसों पहले ही किताबें थमा देते हैं। इससे उनकी बड़ी हानि होती है। शिक्षक लोग यह नहीं समझते कि किताबें शिक्षा प्राप्त करने का गौण साधन हैं। वे प्रधान साधन नहीं। उनसे जो शिक्षा मिलती है वह प्रत्यक्ष शिक्षा नहीं, अप्रत्यक्ष है। जब प्रत्यक्ष साधनों की सहायता से शिक्षा न मिल सकती हो तभी अप्रत्यक्ष साधनीभूत किताबों की सहायता लेनी चाहिए। सीधे सादे तरीके से प्रत्येक शिक्षा मिलना असम्भव होने पर ही किताबों से शिक्षा प्राप्त करना मुनासिब कहा जा सकता है। जिन चीजों को आदमी खुद न देख सके उन्हीं को उसे दूसरों की आँखों से देखना चाहिए। इसी तरह जिस शिक्षा को लड़के प्रत्यक्ष रीति से खुद ही न प्राप्त कर सकते हो उसी के लिए उन्हें किताबों की मदद पहुँचाना मुनासिब है। किताबों से कुछ सीखना मानों दूसरों की आँखों से देखना है। पर इस बात को शिक्षक बिलकुल ही भूल जाते हैं, इस पर वे ध्यान ही नहीं
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