पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय खंड 1.djvu/१०२

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

अमोम "बाबा" मुयाप्त व रहें । अष्टमूर्ति सुरम्य शस्यावलि सो प्रपूरिता । अनन्त सौ दय्य विभा विराजिता ॥ सुअन्न ते पालत है जहान को । "धरा" धरै मूर्ति महा विधान को॥ विशाल ज्वालावलि सो प्रभा भरी। अमन्द आलोकहु ते जु सुदरी ॥ हविष्य को चार सुगन्ध है खरी। लसे सु "वैश्वानर" मूत्ति माधुरी॥ विनापार उपाधि है जीवन जानु डराब की। महान्धि है राखन मर मीद का॥ असीम आनद वग्ग पर है। प्रसन "कोलार" मुदिव मृर है ।। अखण्ड ब्रह्मा विनाम है जहा। अनन्त यो पर मुनीर है महा !! सहन मुमार उग ने रहे। ॥३३