पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय खंड 1.djvu/१०३

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"समीर" प्रभात मे सुन्दर रूप वारिदै । भ्रमे हुए पान्थ श्रमै निवारिक ॥ सु प्राणधारी-गन हेतु प्रान है। सौन्दर्य भरो महान है॥ असख्य नक्षन के सुलोक का। विराट-राजा-सम है अशोक को॥ प्रकाश सो पूर प्रभा पसारि कै। "दिनेश "नाशे अघ को प्रचारि कै॥ निशा सुराका मह मञ्जु भासि के । कला दिखाव सुखमा प्रकासि के ॥ सुधा-झरी-सी वरसे अमन्द है। महान राजे नभ चार "चन्द्र" है॥ दुखी जनो के दुख को निवारि के । सुखी करे धम्म महा प्रचारि के । आतिथ्य-सेवा-रत मोद को भरै। मनुष्य सत्वम्म सुयज्ञ को करै ॥ बसुन्धरा अम्बु, धनन्जयादि में। बिहायसी, पीन, दिनेश आदि मे ।। शशाक औ सज्जन म सुभावती । प्रभो, तिहारी सुखमा प्रभावती॥ प्रसाद वाङ्गमय ।।३८॥