पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय खंड 1.djvu/११२

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रसाल ममीरन मन्द मन्द चलि अनुकूल, म्वेलत रमाल सग अति सुखमूल। उदार चरित तुम तवर राज, तुम्हरे सहाय बरी होत ऋतुराज । मजरो मधुर गन्ध कानन पूरित, मधु लोभी मधुकर निकर गुजिन । करत मुदित मन नवल मृजन, तुमसो सुखद और कौन है सुजन । ग्रीपम-निदाघ महँ शीतल मुछाया, श्रमित पथिर कह देह मन भाया। हरित मपन स्प तर निग्मत, पथिव हृदय महं सुख वरस्वत। निहारि नवर धन पुरवित ता, परव, कोपर नव परि वितगा। सहत अपार या परम रसाल, विहंग परत गान वैठि तव डाल। चियापार us