पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय खंड 1.djvu/११३

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वर्षा मे नदी-कूल सघन सुन्दर मेघ मनहर गगन सोहत हेरि । चरा पुलक्ति अति अनन्दित रूप धरि चहुँ फेरि ॥ लता पल्लवित राजै कुसुमित मधुकर सो गुञ्जित । सुसमय शोभा लखि मन लोभा कानन नव रजित ।। विजुलि मालिनि नव कादम्बिनि सुन्दर रूप सुधारि । अमल अपारा नव जल धारा सुधा देत मनु ढारि ॥ सुखद शीतल करत होतल विमल अनिल सुधीर । तरगिनि-कूल अनुकूल आइ चलत मेटत पीर ॥ तरग तरल चलत चपल लेत हिलोर अपार । कूलन सो मिल करै खिल खिलि तटिनि विस्तृत धार ।। वत्ति वेगवति चलत ज्यो अति मनुज ता वस होत । तरगिनी-धारा चलत अपारा चार कल कल होत ॥ कूल-तम्सनी अति सुख देनी सुन्दर रूप विराजे । वर्षा नटिनि के पट मनोहर, चार किनारी राजै ॥ प्रसाद वागमय ॥४८॥