पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय खंड 1.djvu/१३९

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वैनन कहत आवत हौ अन्तर मे अन्तर रखत तक, जपत निरन्तर हो अन्तर न जानि ।। नैनस बसत काहे कसत कसौटी, यहा सवै खरे सुवरन पर अनुमानि के । हिये चैन न परत, तुम सैनन 'प्रसाद' क्यो कहत अनजानि के ।। पञ्च नहिं जानो, ही विपञ्ची बूझ देखो, किन राग है बजत गुनी लीजो पहिचानि के॥ दखिके अमल मुखचन्द हिय भीतर हू, अतिहि अमन्द क्हो होत उजियागे क्यो ? नूपुर मधुर धुनि सुनत विहाल होत, चचल कुरग मन चौक्डी बिसारो क्यो? कौन सो भरा है जादू नैनन की सैना म, चैन छन नाहिं जात गात ना सभारो क्या ? देखत ही ताहि पहिचानो सो परत, कहो बरवस ही लागत 'प्रसाद वह प्यारो क्यो? मानस की तरल तरग उठे रग भरी, पाइके बयार सुख सार स्वच्छ जल पर ॥ रूप के प्रभाव भरि आदि अपार खिल्यो, हृदय स्वभाव मकरन्द ले अमल पर ॥ सीचत युगल गयुम्भ सुधा-वारन ते, प्रेम पूरन अचल पर । को हो तुम आइकै हृदय म निवास क्यिो, आसन जमायो जनु कमला कमल पर । फूल भले फूल करि कोटिन उपाय निज, वदन दिखाय दरमा अभिमान को॥ मलयज भ्रमर फिरत चहुँ ओर ताप, माली नित फेरा परे परि गुण गान को। एरी क्ली भली हो छिपाये रहो अग, मकरन्द अभिलाप को करत पहिचान को ये तो सर आप ही फिरेंगे तेरे आस गुा, आप ही ते ग्रहण करत सनमान को। पूजत 'प्रसाद' प्रसाद वागमय ॥६॥