सामग्री पर जाएँ

पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय खंड 1.djvu/१३८

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

फेरि रुख जात हो कहाँ को प्रिय नेक इतै, चितै चित चैन देहु लेहु सुधि आओ तो ।। अमल कमल हिय प्रेम निन्दु सिञ्चित है, आसन सुबैठि के 'प्रसाद' सरसामो तो॥ चरन कमल इन नैन जल धारन ते, सीचिहौं तिहारे अव हिय हरखाओ तो॥ नाहिं तरसाओ नेक दया दरसाओ आओ, बेगि प्रानप्यारे नेक कण्ठ सो लगाओ तो॥ पुलकि उठे हैं रोम-रोम खडे स्वागत को, जागत हे नैन बस्नी पै छपि छाओ तो॥ मूरति तिहारी उर अन्तर खडी है तुम्हे, देसिवे के हेतु ताहि मुख दरसाओ तो।। भरिप उछाह सो उठे है भुज भेटिवे को मेटिबे को ताप, वयो 'प्रसाद' तरसाओ तो ॥ हिय हरखाओ प्रेम रस बरसाओ आमओ बेगि प्रानप्यारे नेक कण्ठ सो लगायो तो।। अलक लुलित अलि अवली समान वनि, हिय के रसाल सुधारस बरसाओ तो।। प्रेम परिमल-परिपूरित दिगन्त करि, क्सिलय अगुली सो निक्ट बुलाओ तो ॥ खिलंगो हृदय-बन नव राग जित ह्र, परसि 'प्रसाद' यो बसन्त बनि आओ तो।। कोक्लिा कलित कण्ठ प्रोति राग गाओ आओ, बेगि प्रानप्यारे नेक वण्ठ सो लगाओ तो।। रञ्जित क्यिो है कुसुमाकर ने कानन को, नैन मनियारे अरुनारे जनि पीजिये। कीजिये जो रन्जित तो जीवन अधार । मेरे, हिय अनुराग भरि नवरग भीजिये। प्रानन के प्यासे क्यो भये हो इतो रोप करि, भरि-भरि प्याले प्यारे प्रेम रस पीजिये ॥ दीजिये 'प्रसाद' सुख सौरभ को लीजिए जू, नेक्हू तो चित्त मे दया को ठौर दीजिये ॥ चिनाधार ॥५॥