पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय खंड 1.djvu/१४६

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अरे मन अवहूँ तो तू मान । देखि लिए जग के नेही बहु औरन करु अनुमान । इनकी रीति यही सब दिनते इनको कहा प्रमान ॥ जेहि को चित दे चाह्यो चख भरि जेहि देखन की बान । सो तो आधेहू हग तोको देखन मे सकुचान ॥ अब जनु भूलु मधुर वातन म ये सब जग के स्वान । प्रभु 'प्रसाद' लसु उर अन्तर मे वाही को करु ध्यान । आज तो नीके नेकु निहारो। पावस के धन तिमिर भार मे बीती बात विसारो ।। चमकि गयो जो चपला सम यह प्रियतम विरह तिहारो। ताहि वहाओ रस बरपा मे, हे धन आनंद वारो॥ चातक लो नित रटत रहत हम, हे सुन्दर पी प्यारो। हरित करो यह मरुसम मो मन, देहु 'प्रसाद' पियारो ॥ यह तो सब समुझ्यो पहले ही । नीच निकाम, निलज, बनि जगमे होय तुम्हारो नेही ।। ताहू पर करि प्रेम तिहारो तुमहूँ को नहिं पावै । ठौर ठौर दिखलावो, प्रियतम । मन लालच मे धावै ॥ छुटिहै इन उपचारन नाही प्रेम तुम्हारो मेरो। श्याम पुतरिया देखि तुम्हारी और ओर नहिं हेरो।। मधुरी हंसी, भौंह टेढी मब तब पुलकित है सहिहौं । तुव चरनन म लोटि, जगत के सीस पायें दै रहिहो। चिताधार।। ८३॥