पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय खंड 1.djvu/१४५

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नाथ नहिं फीकी परै गुहार । विश्व विदित यह विरद तुम्हारो, मग मे सुनत पुकार ।। हो जवही लो क्हो सुनो इतने ही मे मव वात । ओर दूसरो कहन न पावै नहिं रहिही पछितात ॥ नाव हिलै नहिं तुम्हरी बोझो हृढ घारो पतवार । बहै वयार जगत मे ती, सेइ लगाओ पार ।। शक्तिमती-करणा करि राखो ल्हे न क्तहूँ हार। तेरो यह 'प्रसाद' करुनानिधि, तुमही राखाहार ।। मधुप ज्यो कज देसि मंडरावे । वैसहि क्यो न होत मन-मधुकर चरण कमल चितलावै ॥ सुख मकरद स्रवत जहँ नितही जहं नहिं दु ख तुषारा। आनंद दिनकर-फिरण-कलाते मदा जहा उजियारा ॥ सो विहारथल तजि मदमाता अनत कहूँ नहिं जावे । नव 'प्रमाद' मकरन्द छाकि के भूलि मरै दुख जावे ।। मेर प्रेम को प्रतिकार। कीजिये जनि अहो प्रियतम । हृदय ! प्राणाधार । हो करौ सवस्व तजि तुव पद कमल मे प्रीत । तुम रहो अनखे अनोखे । हे निठुर मम मीत ॥ भुज उठाइ तुम्हे भरन हित अब म जब प्रान । हम चले, तुम हटो पीछे, करत मुरि मुसुक्यान ।। हम करें अनुसरण तुम्हरो, तुम चलो मुस फेरि । पद सरोज 'प्रसाद' रज तुम देहु सिर पर गेरि ।। प्रिय स्मृति कज मे लवलीन । रहहु मन मधुकर हमारे, जिमि विमल जल मीन ॥ गहहु चन्द्र चकोर गति, अपरूप छवि सर न्हाय । मिलि लखो घनश्याम दामिनि सो हिये हरपाय ॥ पियें हिय भरि रूप रस ये नन प्यासे आज । श्रुति सुधा सगीतमय हो शान्ति के सुखसाज ॥ नित्य मगलमई मूरति हिय पटल मे देखि । तृप्त होय 'प्रसाद लहि यह प्राण प्रेम बिसेखि ॥ प्रसाद वाङ्गमय ॥८२॥