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पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय खंड 1.djvu/१५०

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प्रेम-पथिक सध्या की, हेमाभ तपन की, किरणें जिसको छूती हैं रञ्जित करती है देखो जिम नई चमेली को मुद से कौन जानता है कि उसे तम मे जाकर छिपना होगा, या फिर कोमल मधुकर उसको मीठी नीद सुला देगा? विमल मधुर मलयानिट के मिलने से खिल जाती है, जो हरे पर, कोमल किसलय में अपना अङ्ग छिपाती है, हरी डाल के सुखद हिंडोले म परिवर्धित होकर जो अक्पट विासित भाव दिखाती है वैसी आनन्दमयी, सरल विलोक्न मे जिसके बान्तरिक प्रेम है खिला हुआ निनिमेप हो हंसतो जैसे तन-मन की सुधि भृली-मी, उस नगिक सुरभिपूण, उस रूपवती का क्या कहना, जिसे कि प्रकृति मालिनी बनकर अपने हाथ सजाती है। अहा, चमेली वही, बताओ वैसे सुख को पावेगी तोडी जाकर निज डालो से, चिरमगिनी कली-युग से- पिछुडायी जावर, क्या फूल चगेर सजावेगी? विमा? प्रेम-पथिक ॥८॥