पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय खंड 1.djvu/१५१

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जिसे न कुछ परवाह क्ली की, उसे तोडकर रखता है सेज समीप, रात को खिल सिलकर सुख देती जो उसको जिसका शयनागार सजा है, पुष्पपात्र है बहुत धरे किसी एक म यही चमेली पडी म्लान हो जावेगी । जी भर-भर कर सौरभ देकर आकर्षित न मिया मन का विना स्पश के ही कुम्हिलाकर अपना समय वितावेगी । अथवा कौन वतावे कैसा होगा इसका फल इसको, विसी स्वार्थी माली से तोडी जाकर, गॅथी जाकर- अन्य कुसुम-बलियो के साथ बनावेगी सुदर माला टके मोल बिक जावेगी। जर सुदर सौरभ ले लेगा, दूर करेगा उसको, अपने गले कभी न लगावेगा कौन जानता है या, यो ही पडी रहेगी डाली म तारा-सा टक लगा रखेगी फूलंगी मन ही मन म शूय माग म विचरणकारी पवन कभी हाँ छू लेगा। अभिलाषा-मकरन्द सूख जावेगा, मुरझा जावेगी, जिस धरणी से उठी हुई थी उस पर ही गिर जावेगी। लीलामय की अद्भुत लीला क्सिसे जानी जाती है कौन उठा सकता है धुंधला-पट भविष्य का जीवन मे जिस मदिर मे देख रहे हो जलता रहता है कपूर कौन बता सकता है उसमे तेल न जलने वेगा यह भी नहीं जानता काई वही महल, आशामय के विशद कल्पना मदिर-सा कव, चूर चूर हो जावेगा, कुटिल काल के किस प्रभाव से फिर क्या-क्या बन जावेगा भला जानते हो क्या कानन-कोने म जा बना हुआ द्रुमदल आच्छादित कुटीर है, जिस पर लतिका चढी हुई ईश दया-सी छाई है, उसम सामग्री एक नही सब अभाव के रहते भी क्या कोई वस्तु नही घटती? हा, अभाव का अभाव होकर आवश्यक्ता पूरी है। सुदर कुटिया वह कैसी है रम्यतटी मे सरिता के शात तपस्वी-सी रियो के युरमुट फैल रहे थे कोमल वीरुध हरे-हरे तृण चारों ओर जैसे किसी दुग की खाई मे श्यामल जल भरा हुआ प्रसाद वाङ्गमय ॥८८॥ से घिरी हुई।