पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय खंड 1.djvu/१५६

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

खेल खेल कर खुली हृदय की कली मधुर मकरन्द हुआ खिलता था नव प्रणयानिल से नन्दन कानन का अरविन्द विमल हृदय के छायापथ मे अरुण विभा थी फैली घेर रही थी नवजीवन को वसत की सुखमय सन्ध्या, खेल रही थी सुख-सरवर मे तरी पवन अनुकूल लिये सम्मोहन वशी बजती यी नव नमाल के कुजो मे हम दोनो थे भिन्न देह से तो भी मिल कर बजते थे- ज्यो उँगली के छू जाने से सस्वर तार विपञ्ची के । छोटे छोटे कुज तलहटी गिरि-कानन की शस्यभरी, भर देती थी हरियाली ही हम दोनो के हृदयो मे कलनादिनी नवीना तटिनी पूण प्रवाह बहाती थी प्रेमचन्द्र-प्रतिबिम्ब हृदय मे लेकर वह सेला करती। व्योम अष्टमी का जो तागे से रहता था भरा हुआ, उसके तारे भी चुक जाते जब गिनते थे हम दोनो-- सब प्रभात नव जीवन लेकर देते थे हमको उपहार, मणिशलाक सम प्रथम किरण का गहरे राग रेंगी थी जो । गीतल पवन लिये अगो को कँपा दिया करती थी जो- वे जाडे की लम्बी रातें बाता मे कट जाती थी। नया नया उल्लास कुसुम-अवचय का मन में उठता था सन्ध्या और सवेरा दोनो ही प्रकाशमय होता था। चिढ जाता वमत का कोपिल भी सुन कर वह वाली, सिहर उठा करता था मलयज इन श्वासो के सौरभ से, भद्रे । वे सब बीती बातें कैसे कहूँ, गिनाऊँ मै ? एक दिवस जव हम दोनो ले आये फर अच्छे-अच्छे अपनी ही फुलवारी से, था एक पहर दिन चढा हुआ, देखा तो आगन मे था सामान थाल म चादी के और लोग एकत्र हुए थे, वैसी वातें होती थी। मैं भी पुलकित होकर दौडा जा पहुंचा चाचा के पास पूछा उनसे—'यह सब क्या है, क्या कुछ मुझे बताओगे? उनका मुग्न गम्भीर हुआ पर एक लगा हँस कर कहने- 'बच्चा । यह फलदान जा रहा है चाचा की पुतली का।' प्रेम पथिक ॥१३॥