पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय खंड 1.djvu/१५७

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कहा पथिक ने- 'शुभे । कथा सुन लो फिर नाम बताऊँगा। हा, फिर हम दोनो ऐसे ही बहुत दिनो तक मिलते थे जब कि पिता की जरा अवस्था रोग साथ म ले आई और हुए वे बहुत दुखी तब सहचर को बुलवा भेजा पुतली के तव पिता देखकर उन्हे, बहुत ही दुखी हुए। कहा-'मिनवर' कहो तुम्हारी क्या आज्ञा है, उसे करूं।' कहा पिता ने-'मित्र, देखकर समझ रहे हो सब बातें तुम्हे सौपता हूँ अब इसको, इसे पुन अपना जानो।' यो वह मेरा कर उनके हाथो मे देकर सास लिया कहा उन्होने-'यह तो यो ही है मेरा, हा और कहो यदि कोई हा काय्य और भी उसे करेंगा सच जानो' 'और नही कुछ, शात चित्त से स्मरण करूंगा अब प्रभु का' कहा पिता ने प्रमुदित होकर । मित्र पधारे निज गृह को। कहा मिनता कैसी बातें ? अरे क्ल्पना है सब ये सच्चा मित्र कहा मिलता है |-दुखी हृदय की छाया-सा । जिसे मिनता समझ रहे हो, क्या वह शिष्टाचार नहीं ? मुँह देखे की मीठी बातें, चिकनी चुपडी ही सुन लो। जिसे समझते हो तुम अपना मिन भूलकर, वही अभी जब तुम हट जाते हो, तुमको पूरा मूख बनाता है । क्षण भर मे ही बने मिनवर अन्तरग या सखा समान 'प्रिय' हो प्रियवर' हो सव तुम हो काम पडे पर 'परिचित' हो क्ही तुम्हारा 'स्वाथ' लगा है, कही 'लोभ' है मित्र बना, कही 'प्रतिष्ठा' कही 'रूप' है-मिन रूप म रंगा हुआ । हृदय खोलकर मिलनेवाल बडे भाग्य से मिलते है मिल जाता है जिस प्राणी को सत्य प्रेममय मिन कही निराधार भवसिन्धु बीच वह कणवार को पाता है प्रेम नाव खेकर जो उसको सचमुच पार लगाता है। - - "प्रणयाकुर की तरह वालिका, बालक दोनो बढते थे क्योकि पिता के मरने पर हम पिता मिन के घर रहते अभिभावक अब वही हमारे रखते स्नेह सहित मुझको । नित्य नई क्रीडा होती थी। सुख से था ससार बना। प्रसाद वाङ्गमय ॥१२॥