पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय खंड 1.djvu/१६०

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- विदा हुआ थानन्द-नगर मे, जन्मभूमि से, जननी से ऊंचे महलो से, सरिता के फूलो से, वन-धागो से, चारणभूमि, रमाल-युज से-जो शैशव के परिचित थे हृदय हुआ था विकसित जिन वृक्षा को कुसुमित देख नितात उनसे भी आलिंगन करके रिया प्रणाम विदाई का। छोड दिया सुमधाम सबल आराम, प्रेम-पथ-पथिक हुआ जगत प्रवाम बना था मेरा, सभो नगर ही ये परदेश। गिरि-कानन, जनपद, सरितायें, पितनी पड़ी माग के बीच हृदयोपम सूना आकारा दियाई पडता था सवत्र । सूय सवेरे ही उगते थे, सबको नित्य उठाते थे सब अपने पामा मे लगते, में अपने पथ पर चलता। वह जाता था उपाचाल मे दक्षिण मलयज सुखकारी रिसी वृक्ष के नीचे रहता प्रेम-पथिक थक कर सोया । वसत का भी पवन दोपहर में ज्वाला वरमाता था छाया खोज पही जा बैठा, श्रम जिससे मिट जाय वही तो चातक आवर पुकारता अहो-'पी कहाँ ?'-निज सुख म व्यथित हृदय हो तब मैं उसको देख कही जो पाता था, तो वह अपने प्रिय की डाली पर उडरर चल जाता था हो जाता झकारित मन-'पो कहा ?--मनोहर पोरी से प्रिय-अनुशीलन मे फिर उठता वैट न सकता तर-तल म तपन तपाता था तन को फिर धूलि जलाती पैरो का विरह वह्नि शीतल होती थी जब आसू बह जाते थे। मिलते थे मैदान जहा तृण-वीरध एक नही उगते वालू का ही पुज दिपाई पडता ज्वालामय उद्भ्रान आद्र हृदय नीरद से जिससे भेट कभी को भी न रही। पैरो की तो कौन कहे मन को भी गति रख जाती थी जिसके पडे फफाले आसू बन-बनकर बह जाते थे। आशा तरुवर दूर दिखाई देता था जिसकी छाया देती थी सतोष हृदय को उस मरभूमि निराशा म। एक दिवम प्राची मे जब अंधियारी पढती जाती थी मन्ध्या अपना फैलाती थी प्रभाव प्रकृति-विहारो म प्रेम-पथिक ॥१५॥