पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय खंड 1.djvu/१६१

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में पहुंचा गिरितटी समीप, जहा निमल सरिता बहती हरो भरी सब भूमि रही, अपने मन से विकसित तरु थे, शीतल जल मे अवगाहन कर शैल शिला पर बैठ गया शारदचन्द्र गगन सुन्दर लगा चमक्ने पूण प्रकाश शुभ्र अभ्र की छाया उस पर से होकर चल जाती थी तव जैसे 'वन्दील' प्रवृति कौतुम-वश हो लटकाती थी पूर्णचन्द्र की 'आखमिचौनी'-क्रीडा महा मनोहर थी देख रहा था निनिभेप हो मैं भी भावमयी क्रीडा, अहा 'चमेली' का सुदर मुख हृदय-गगन म उदित हुआ प्रेम-मिन्धु म प्रतिविम्बित हो शत शत रूप बनाता था। धीरे धीरे वीती बातें याद लगी पडने मुझको- शंशव के सव सुखद दिवस जो स्वप्न सदृश थेबीत गये सचमुच तन्द्रा सी मुझको फिर लगी, मोह म मुग्ध हुआ देवदूत सा च द्रनिम्ब से एक व्यक्ति उज्ज्वल निक्ला कोमल-कण्ठ लगा कुछ कहने-ठोकर लगी विपची मे-- "पथिक | प्रेम की राह अनोखी भूल भूलकर चलना हे घनी छाँह हे जो ऊपर तो नीचे काँटे बिछे हुए, प्रेमयज्ञ मे स्वाथ और कामना हवन करना होगा तर तुम प्रियतम स्वग-विहारी होने का फल पाओगे, इसका निमल विधु नीलाम्बर मध्य क्यिा करता क्रीडा चपला जिसको देख चमककर छिप जाती है घन-पट मे। प्रेम पवित्र पदाथ, न इसमे कही क्पट की छाया हो, इसका परिमित रूप नही जो व्यक्तिमान में बना रहे क्योकि यही प्रभु का स्वरूप है जहा कि सबको समता है । इस पथ का उद्देश्य नहीं है थात भवन मे टिप रहना कि तु पहुंचना उस सीमा पर जिसके आगे राह नही अथवा उस आनन्द भूमि म जिसकी सीमा कही नहीं यह जो केवल रूपजन्य है मोह न उसका स्पर्धी है यही व्यक्तिगत होता है पर प्रेम उदार उसमे इसमे शैल और मरिना कान्मा प्रेम, जगत का चाला मिट्टी वा जलपिण्ड सर्भ 141 पमाद वागमय ॥१६॥