पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय खंड 1.djvu/१६७

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N न्योछावर कर दो उस पर तन मन जीवन, सवस्व नही- एक कामना रहे हृदय मे, सव उत्सर्ग करो उस पर। उस सौन्दय्य-सुधासागर के कण है हम तुम दोनो ही मिलो उसी आनन्द-अम्वुनिधि मे मन से प्रमुदित होकर यह जो क्षणिक वियोग, वहा पर नहीं फटकने पावेगा एक सिन्धु मे मिलकर अक्षय सम्मेलन होगा सुन्दर फिर न विछुडने का भय तुमको मुझको होगा कही-कभी । आओ गले नही प्रत्युत हम हृदय हृदय से मिल जायें जीवन-पथ मे सरिता होकर उस सागर तक दौड चल !" "चलो मिले सौन्दय्य प्रेमनिवि मे"-तव वहा चमेली ने "जहां अखण्ड शाति रहती है-वहा सदा स्वच्छन्द रहे !" लगी बनाने सोने का ससार तपन की पीत विभा स्थिर हो लगे देखने दोनो के दृग-तारा, अरणोदय । प्रसाद वाङ्गमय ।।१०२॥