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पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय खंड 1.djvu/१६६

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प्रवल वेग से उठते है जब वपा की नदियो मे दृप्त- तुमुल तरग, गरजते फिरते किसी कूल को प्लावित कर, वह स्वरूप वास्तविक नहीं है इस जीवन निझरिणी का। उसी तरह से युवक-युवतियों का होता है प्रणयोछ्वास, उस पर ही अन्धानुरक्त हो दुखपूर्ण जीवन करना महा मूखता है केवल उच्छृङ्खल वृत्ति पुष्टि करना सुनो चमेली | भूलो वीतो बातो को, मन से धोकर स्वच्छ बनो, आतरिक स्वग मे रमण करो होकर निष्काम आत्म-समपण करो उसी विश्वात्मा को पुलकित होकर प्रकृनि मिला दो विश्वप्रेम म विश्व स्वय ही ईश्वर है । कहा अभी तुमने-'साथी ग्वग मृग ही मेरे हुए यही' किन्तु न परिमित करो प्रेम, सौहाद विश्वव्यापी कर दो। क्षणभगुर सौन्दय देस कर रीझो मत, देखो ! देखो !! उस सुदरतम की सुन्दरता विश्वमान मे छाई है- ऊपर देखो, नील-गगन मण्डल मे चमकीले तारे नीचे हिम के विन्दु एक ही मधुर भाव प्रकटित करते, मधुर मरुत, कल-कल निझरिणी जल के साथ बहाता है तुङ्ग मनोहर शृगो से सौन्दयमयी विमला धारा। छोटे-छोटे कुसुम श्यामला धरणी मे किसका सौन्दय्य इतना लेकर खिलते हैं, जिन पर सुन्दरता का गर्वी- मानव भी मधुलुब्ध मधुप-सा सुख अनुभव करता फिरता। देखो मोहन अपना कैसा वेश बदलता आता है नीलाम्बर का छोड़ दिया पीताम्बर पहने वह आया साराओ का मणि-आभूषण धीरे धीरे उत्तरा है। कुसुमदलो से लदी हुई धरणी का यह शोभन उद्यान- किसके क्रीडा-कुञ्ज-समान दिखाई देता है सुन्दर किसकी यह सम्भोग-सेज थी सजी? अभी उठ कर जैसे चला गया है । परिमल-मिलित दूँद श्रम के ये विखरे हैं। विमकी व्यस्त अलम सुपमा थी अब तर धरणी लिये उपा चांदनी-सी विछती है किस सुन्दर के लिए कहो? स्निग्ध, शात, गम्भीर, महा सौन्दर्य सुधामागर के कण ये मव विखरे हैं जग म-विश्वात्मा ही सुन्दरतम है प्रेम पथिक ।। १०१॥ om