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पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय खंड 1.djvu/१७७

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. महा स्वच्छ नभ नील, अरुण रवि रश्मि को सुन्दर माला पहन, मनोहर रूप मे, नव प्रभात या दृश्य सुखद है सामने उसे बदलना नील तमिस्रा रात्रि से जिममे तारा का भी कुछ न प्रकाश है प्रकृति मनोगत भाव सदृश जो गुप्त, यह फैसा दुखदायक है ? हाँ वस ठीक है। देखेंगे परिवर्तनशीला प्रकृति को धूमेंगे बस देश-देश स्वाधीन हो। मृगया से आहार, जीव सहचर सभी नव विसलय दल सेज सजी सर स्थान मे, पहो रही क्या कमी सहायक चाप है। ( नेपथ्य से) . चलो सदा चलना ही तुमको श्रेय है। खडे रहो मत, कम्म-माग विस्तीण है। चलनेवाला पीछे को ही छाडता सारी बाधा और आपदा-वृन्द को। चले चलो, मत घराना तनिक भी धूल नही यह पैरो म है लग रही समझो, यही विभूति लिपटती है तुम्हे । बढो, बढो, हा सको नही इस भूमि मे, इच्छित फल की चाह दिलाती बल तुम्ह, सारे श्रम उसको फूलो के लगते है, जो पाता ईप्सित वस्तु को। चलो पवन की तरह, रुकावट है कहा, बैठोगे, तो कही एक पग भी नही स्थान मिलेगा तुम्हे, कुटिल ससार मे। मघन लतादल मिले जहा है प्रेम से शीतल जल का स्रोत जहा है बह रहा हिम के आसन बिछ, पवन परिमल मिला वहता है दिन रात, वहा जाना तुम्ह । प्रसाद वाङ्गमय ।।११२॥