पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय खंड 1.djvu/१७६

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द्वितीय दृश्य (कानन में रोहित ) स्वगत पिता परमगुरु होता है, आदेश भी उसका पालन करना हितकर धम है। किन्तु निरथक करने की आज्ञा कडी कैसे पालन करने के है योग्य यो। वरण, देव है या कि दैत्य । वह कौन है ? क्या उसको अधिकार हमारे प्राण पर क्या वह इतनी सावजनिक सम्पत्ति है नही, नही, 'वह मेरा है' यह स्वत्व है हम जब थे अनान, न थे कुछ जानते सुस क्मिवा है नाम, तरणता वस्तु क्या, प्रकृति प्रलोभन म न फैमे थे, पाम की वस्तु न यो आयर्पित करती थी हम, तभी क्यो न पर रिया र वलियम्म यो। कानालय ॥१११॥