पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय खंड 1.djvu/१८

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फिर भी नागरी लिपि के लिये उनका दीवानापन इलाधनीय था बनारस को अदालत मे बैठ कर वे नागरी लिपि मे विना 'उजरत' मस्विदे लिखते थे। किन्तु भाषा के संगठन परिष्करण पर दृष्टि श्री हरिश्चन्द्र की थी और वस्तुत साहित्य-साधना मे रक बने उस प्रेमयोगी को जन सामान्य ने भारतेन्दु पद दे राजतन्त्र द्वारा बाधे गये भापायी मोर्चे पर एक जवाबी हमला किया। श्री हरिश्चन्द्र को लोक-पक्ष से मिला सम्मान किसी भी राजकीय उपाधि से कोटिगुण महनीय था। अंग्रेजी मितारे की "वुलन्दी" और "गर्की" उभयावस्थाओ मे भारतेन्दु का आसन अविचाल्य और ऐतिहासिक बन गया। युग की वाणी ने भारतेन्दु के माध्यम से हिन्दो म अभिव्यक्ति पायी फिर हिन्दी उसे युग-यग तक क्यो न सजोये ? जिस स्नेह से उन्होने नागरी की माग भरी, बेजोड है। निश्चय ही अमीचन्द के उम वशवर के गूढ व्यग, उनका उदात्त स्वाभिमान और उससे भी वढ कर 'जोहुजूरी' का अत्यन्ताभाव अग्रेजो की दृष्टि मे ये सभी खटकने वाली वस्तुयें थी उनसी यथास्थिति वाली नीति के राग मे ये विवादी स्वर थे अमीचन्द के वशधर श्री हरिश्चन्द्र से जन्मना "कजर्वेटिव" अग्रेजो को कुछ दूसरी ही आशायें रही होगो किन्तु अपने कृतित्व की पूंजी से वे एक सास्कृतिक ऋण का शोध कर गये। सत्तावन के जले सत्तावान अग्रेजो ने उनके व्यक्तित्व मे विद्रोह की गव पायी हो तो कुछ आश्चय नही। अभिजात वणिक धम के अनुरोध से सुखसाज सजे भारतीय मध्यवग वो उन्होने जो चेतावनी थी वही तो आगामी स्वदेशी-आन्दोलन का बीजमन्त्र बना जिसके धन-जटा-युक्त सस्वर पाठ से एक दूसरे वणिकपुन गावी के हाथो दुर्दान्त अग्रेजी राज समापन का हुआ । इसी बीजमन्त्र की पूण पद प्रतिष्ठा १९४२ के 'क्विट इण्डिया' में हुई एक निरीह नि शस्त्र दास-देश के तेजस्वी आज्ञाचक्र से विदेशो राजतन्न को मही और कठोर आदेश मिला, जिसकी उपेक्षा क्या मम्भव थी? प्राची क्षितिज मे उठती अरुणिमा को अनदेखा रखने वाले वे 'मानवता के समतल पर चलता फिरता हो दम्भस्तूप'-कल्प अपने अह- कार के प्रहरी, किंवा, अग्रेजो द्वारा नवारोपित राजन्य, अपनी निरीह प्रजा के सम्मुख दुर्दान्त सिह रूप थे वे ही अपने स्रष्टा के समक्ष स्वण. शृखल अवनतशिर दासानुदाम बनते जा रहे थे। सम्राट् का 'पेज' बन जाना उनके लिये एक स्पृहणीय निभुवन सम्पदा थी। वास्तविकता पर विडम्बना का आवरण, जैसे उनकी शोभा बन गई थी । कृत्रिम दम्भ के प्राक्कथन ॥१९॥