पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय खंड 1.djvu/१८७

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(आकाश की ओर देखकर ) अपनी आवश्यकता का अनुचर बन गया रे मनुष्य | तू क्तिने नीचे गिर गया आज प्रलोभन भय तुझसे करवा रहे कैसे आसुर कर्म। अरे तू क्षुद्र है- क्या इतना? तुझपर सब शासन कर सके और धम की छाप लगाकर-मूढ तू फंसा आसुरी माया म, हिंसा जगी अथवा अपने पुरोहिती के मान की ऋषि वसिष्ठ को, कुलगुरु को, इस राज्य के । " ( वसिष्ठ से) तुम हो जाता धम्म मनुज की शाति के यह क्या है व्यापार चलाया? चाहिये यदि मनुष्य के प्राण तुम्हारे देव को ले लो ( मधुच्छ दा की ओर देख कर ) कितने लोगे ये सब सौ रहे वसिष्ठ लज्जित हूँ, मुझमे यह साहस था नही विश्वामिन महर्षि तुम्हें हूँ मानता (झपटी हुई एक राजकीय दासी का प्रवेश जो राजा और अजीगत कीओर देसकर कहती) दासी ( राजा स- न्याय । न्याय ।। हे देव, न्याय कर दीजिये ( अजीगत से) रे रे दुष्ट | बना है ऋषि के रूप मे निरा बधिक रे नीच | अरे चाण्डाल तू भूल गया दुर्दैव सहश उस बात को प्रसाद वाङ्गमय ।।१२२॥