पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय खंड 1.djvu/१८८

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? 1 (विश्वामित्र से---) और न तुम भी मुझको हो पहचानते । क्या वह नवल तमाल कुज मे प्रेम से परिवर्तन वनमाला का विस्मृत हुआ क्या वह सब थी केवल कुटिल प्रवञ्चना अहो न अब पहचान रहे निज पुन को जो है परिचित शुन शेफ के नाम से । विश्वामित्र अरे । सुव्रता । तू है, सचमुच स्वप्न-सी मुझको अव सव वातें आती ध्यान मे, में जब तप के लिए छोड असहाय ही तुझे गया-फिर पडा अकाल । न था कही क्षण भर को अवलम्ब तुम्हे यह भूल कर में चिन्तित था धम और तप तत्त्व में रे झूठे अभिमान तुझे धिक्कार है। तुझे बहुत खोजा था मैंने ग्राम मे। जब जाता था हिमगिरि के वनकुञ्ज मे सत्य, तुझे वञ्चित न कभी मेने किया। ईश-वृपा से आज अचानक पा गया । प्रिये । तुम्हारा मुख, निज सुत को देख कर पूर्ण हुआ आनन्द (गुन गेफ की ओर--) ज्येष्ठ यह पुत्र है मेरा, अब तुम सुत को लेकर साथ मे सुखी रहो। ( अजीगत स) रे दुष्ट वधिक । भर क्यो नही बतलाता है उसको अपना पुत्र तू। ( हरिश्च द्र से-) राजन् ! यह मुद्रता हमारी नारि है इसे मुक्त दासीपन से कर दीजिये, और नराधम को भी शासित कीजिये। करणालय ॥ १२३॥