पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय खंड 1.djvu/१९२

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महाराणा का महत्व "क्यो जी कितनी दूर अभी वह दुग है ?" शिविका मे से मधुर शब्द यह सुन पडा। दासी ने उन सैनिक लोगो से यही -यथा प्रतिध्वनि दुहराती है शब्द को- प्रश्न किया जो साथ-साथ थे चल रहे । कानन मे पतझड भी कैसा फैल के भीपण निज आतक दिग्वाता था, कडे सूखे पत्तो के ही खड-खड' शब्द से अपना कुत्सित क्रोध प्रकट था कर रहा । प्रबल प्रभजन वेगपूण था चल रहा हरे हरे द्रुमदल को ख्व लयेडता घूम रहा था, क्रूर सदृश उस भूमि मे। जैसी हरियाली थी वैसी ही वहा- सूखे कांटे पते विखरे ढेर-से बडे मनुष्यो के पैरो से दीन-मम जो कुचले जाते थे, हय-पद-वज्र मे। धूल उड रही थी, जो धुमकर मांस म पय न देखने देती सैनिक वृन्द को, महाराणा का महत्त्व ॥ १२९॥ २