सामग्री पर जाएँ

पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय खंड 1.djvu/१९३

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

't पा ॥ ९॥ पारा अपहृत था सवस्व यहा तक, पन भो- एक न थे उनमे, कुसुमो की क्या कथा। नव वसत का आगम था बतला रहा उनका ऐसा रूप, जगत-गति है यही। पूण प्रकृति की पूर्ण नीति है क्या भली, अवनति को जो सहन परे गभीर हो धूल सदृश भी नीच चढे सिर तो नहीं जो होता उद्विग्न, उसे ही समय मे उस रज-कण को शीतल करने का अहो मिलता बल है, छाया भी देता वही। निज पराग को मिश्रित कर उनमे कभी कर देता है उन्हे सुगधित, मृदुल भी । देव दिवाकर भी असह्य थे हो रहे यह छोटा-सा झुड सहन कर ताप को, बढता ही जाता है अपने माग मे। शिविका को घेरे थे वे सैनिक सभी जो गिनती म शत थे, प्रण मे वीर थे। मुगल चमूपति के अनुचर थे साथ म रक्षा करते थे स्वाम। के 'हरम' की। दासी ने भी वही प्रश्न जब फिर किया- "क्यो जी क्तिनी दूर अभी वह दुग है ?, सैनिक ने बढ करके तब उत्तर दिया- से दूर निरापद स्थान है, यह नवाब साहब की आज्ञा है कडी- मत स्कना तुम क्षण भर भी इस माग मे क्योकि महाराणा की विचरण भूमि है वहाँ माग म, कही मिलेगी क्षति तुम्हे यदि ठहरोगे, रक्ता हूँ इससे नहीं।" दासी ने फिर कहा-"जरा ठहरो यही क्योरि प्याम ऐसी बेगम को है लगी, चक्कर-सा मालूम हो रहा है उन्हे ।' प्रसाद वाङ्गमय ॥१३०॥ "अभी यहा