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पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय खंड 1.djvu/२००

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11 सा तक भूमि के छोड कर सपना चार मैं होकर निश्चेष्ट देखता था वही- रण-क्रीडा स्वाधीना जननी-भूमि के वीर पुत्र की, निनिमेप होकर अहो । तुक देश से लेकर हा गान्धार वीर शतश कानन देख कर वीर कथामओ को सुन कर भी आज तक प्राप्त न हुई कभी थी मुझे प्रसन्नता, क्योकि सभी वे क्रूर और निर्दय मिले युद्ध-काय करते थे अपने स्वाथ जन्मभूमि के लिए, प्रजा-सुस के लिए इतना मात्मात्मा भला किसने किया? दुग्ध-फेन-निभ शय्या को यो सूखे पत्ते कौन चबाता है कहो- मातृ-भृमि देशहित-वामना, किसको उत्तेजित करती है, वे कहाँ? जिस कानन मे पहुंचा मे पहुंचा युद्ध विनोद मे लिये तलवार ही, गिरि-कन्दर से देख स्वकीय शिकार को जैसे झपटे सिंह, वही विक्रम लिये वीर 'प्रताप' दहक्ता दावाग्नि-मा सत्य प्रिये । में देख शूर-छवि वीर की होता था निश्चेष्ट, वाह कैसी वितने युद्धो मेरी निश्चेष्टता हुई विजय का कारण वीर क्याकि मुग्ध होकर में उनको देखता।" वी भक्ति, सदा मिला सन्नद्ध, था प्रमा। म 'प्रताप' के, 1) "कोरी भक्ति भला होती सियाम की कुछ उसका उपयोग अवश्य दिखाइए- वहा मुन्दरी ने तन कर कुछ गर्व से- "सच्चे तुर्व न होते कभी कृतघ्न है ।" "प्रिये ! भला पिम मुख से में तलवार अब लेकर घर में समर पर उस वीर से, महाराणा का महत्त्व ॥१३७॥