पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय खंड 1.djvu/१९९

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- कपोल म, उठी। सुमन-बुज मे स्वर से प्रिये। तुम्हारे इस अनुपम सौन्दय्य से वशीभूत होकर वह कानन-केशरी, दात लगा न सका, देखा---गान्धार का सुन्दर दाख"-कहा नवाब ने प्रेम से। कंपो सुराही वर की, छलकी वारुणी देख ललाई स्वच्छ मधूक खिसक गई डर से जरतारी ओढनी, चकाचौध-सी लगी विमल आलोक को, पुच्छमर्दिता वेणी भी थरी आभपण भी झन-झन कर बस रह गये । पचम तीव्र हो बोल उठी वीणा--"चुप भी रहिए जरा जिसकी नारी छोडी जाकर शत्रु से, स्वीकृत हो सादर अपने पति से, भला वह भी बोले, तो चुप होगा कौन फिर !' अपने हँसते मुख को शीघ्र वढा दिया । तब पानपात्र निश्शेष कर अच्छा दुजन-कृत बहुसम्मान से। सज्जन-कृत अपमान न होता है कभी हृदय दिखाने को, होता वह भूल से, विन्तु नीच नर जो करता सम्मान है उसमे भी उसका घमण्ड है छिप रहा केवल आडम्बर मे निज अभ्यथना करता है वह अपनी कुत्सित नीति से।" "बस बस, बातें अब विशेप न बनाइए" कहा सुन्दरी ने-"यह सब भो ढग है प्रत्युत्तर की अनुपस्थिति मे भी पाद-पूर्ति सा होता है दुष्काव्य मे, यह थोथा पाण्डित्य न आज बधारिए होता जो निरुपाय वही क्या सरल है "प्रिये। बातें मत ऐसी कहो इससे होता दुख-"कहा "मैं जब से सेनापति हो आया यहा नवाब ने है हास मम की नवाब ने- प्रसाद वाङ्गमय ॥ १३६॥ -- 1