पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय खंड 1.djvu/२०२

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सच्चा साधक है सपूत निज देश का मुक्त पवन मे पला हुआ वह वीर है सच 'प्रताप' को स्वय मिलेगी सम्पदा परमपिता की जो होगी शुभ कामना तो वह मुझे वनावेगा अपना कभी परिचारक साधन मे इस सत्काय्य के।" तारा-हीरक-हार पहन कर, चद्रमुख- दिखलाती, उतरी आती थी चादनी (शाही मो के ऊँचे मीनार से) जैसे कोई पूण सुन्दरी प्रेमिका मथर गति से उतर रही हो सौध से अकबर के साम्राज्य भवन के द्वार से निकल रही थी रपट सुगन्ध सनी हुई बसरा के 'गुलाब' से वासित हो रहा, भारत का सुख शीत पवन, जैसे कही मिरे विलाम नवीन विवेकी हृदय से राज भवन मे मणिमय दीपाधार सव स्वय प्रकाशित होते थे, आलोक भी फैल रहा था, स्वच्छ सुविस्तृत भवन मे कृतिम मणिमय लता, भित्ति पर जो वनी नव वसन्त-सा उन्हें विमल आलोक ही मुक्ताफलगालिनी बनाता था वहाँ, पुसुम-यलो की मालायें थी झूमती तोरण-बदनवार हरे हरे द्रुमपत्र के । सुरभि पवन से सव वलियां बिलने लगी, श मालाए गजरे सी अव हो गई। सज्ज सभागृह मे सब अपने स्थान पर बन्दी, चारण, प्रतिहारोगण थे ढले हुए सुन्दर सांचे मे शिल्प के पुतरे-जैसे सजे हुये हो मे । खडे, भवन महाराणा का महत्त्व ॥ १३९॥