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पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय खंड 1.djvu/२१

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क्रान्ति के युग म लोग चेतना असाधारण रूप से गतिशील और प्रवर हा उठती है अमामान्य और त्वरित परिवत्तनो के प्रतिम्प प्रक्षिप्न हा पदाय के स्तर पर आते हैं वस्तुत क्रान्ति का मौलिक स्वरूप-सगठन उस जवीयसी चैतस्-पीठिका से ही चलता है जिसके स देश वाङ्गमय के माध्यम से लाक् धरा पर आते हैं अन्य शब्दो में क्रान्ति का द्वितीय चरण वाङ्गमय भूमि पर पडता है फिर तो वह अगति के जीणकाण्ड वन की दावा वन जाती है। यदि चेतना के स्तर और वैचारिक भूमि पर मागलिक परिवतन की अभीप्सा का जागरण नही है तो क्राति का अथ पाशव-सघप के अतिरिक्त कुछ न होगा इसी लिये हमारी परम्परा क्रान्ति को चेतना के स्तर पर पहले देखती है फिर बाद में परिणामत उसी अन्विति पदाय के स्तर पर करती है । नेहरूजी ने सही कहा है- "During a revolutionary period history seems to search with seven leaque boots There are rapid changes outwordly but an even greater change takes place in the consciousness of the masses' (Glimpses of world history) अभिव्यक्ति की पूरी स्वतन्त्रता और साहित्यिर सढियो के उच्छेद का कोई भी विकल्प अव हिन्दी को स्वीकार न या एक प्राजल गरिमा मे वह अपना परिशुद्ध रूप स्थिर कर लेना चाहती थी। साहित्य म भी विक्टोरियायी मूत्या वाली सुधार-परक वृत्तिया अग्रसर थी जिसे उत्तर- भारतेन्दु और प्राक् प्रसाद काल का विष्कम्भ कहा जा सकता है और, जो यथाथ पर आदश का आवरण डाले रसना चाहती थी। यथाथ का प्रस्टीकरण अग्रेजो को कैसे प्रिय होता, वह तो विप्लव-भित था। साहित्य में वैसे विक्टोरियायी दृष्टिसम्पन्न वग की उसी प्रकार समाप्ति हुई जिस प्रकार उनके सुधारवादी राजनीतिक प्रतिम्प निरस्त हुये। अब एक साहित्यिक क्रान्ति आसन्न थी जिमम आयातित विक्टो रियायो मूत्या का विरोध स्वाभाविक था। रीतिकलीन विगताथ वत्तिया के प्रतिक्रिया म्प यह वैसे ही सम्पन हुआ जैसे कभी वैदिक यज्ञवाद बौद्ध हिसावाद द्वारा प्रतिकृत हुआ था । विवरपत सुधारवादी पक्ष को भी अपनी कुछ ऐतिहासिक सार्थक्ता रही उसका भावयोग सास्कृतिक लोकयात्रा मे अपना एक आवसथ रखता है जहा से मामूहिक चेतना एक विराम लगाती सकल्पात्मक नवक्म की ओर पग बताती है और विक्रप का स्थान सकल्प लेने लगता है-- मेरे विकल्प सक्ल्प बनें जीवन हो कर्मों की पुकार (इडा-कामायनी) - प्रसाद वागमय ॥२२॥