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पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय खंड 1.djvu/२२७

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स्थिर दृष्टि है जल बिन्दु-पूरित, भाव मानस का भरा उन अथुक्ण में एक भी मन में न इस भव से डरा वह स्वच्छ शरद-ललाट चिन्तित सा दिखाई दे रहा पर एक चिन्ता थी वही जिसको हृदय था दे रहा था बद्ध-पद्मासन, हृदय अरविन्द सा था सिल रहा वह चिन्त्य मधुकर भी मधुर गुजार करता मिल रहा प्रति क्षण लहर ले बढ रहे थे भाव निधि म वेग से इस विश्व के आलोकमणि की खोज म उद्वेग से प्रति श्वास आवाहन किया करता रहा उस इष्ट को जो स्पश कर लेता कभी था पुण्य प्रेम अभीष्ट को परमाणु भी सव स्तब्ध थे, रोमाच भी था हो रहा था स्फीत वक्षस्थल किसी के ध्यान में होता रहा आनन्द था उपलव्य की सुख-कल्पना म मिल रहा कुछ दुख भी था देर होने से वही अनमिल रहा दुष्प्राप्य की हो प्राप्ति मे हा बद्ध जीवनमुक्त था कहिये उसे हम क्या कह, अनुरक्त था कि विरक्त था कुछ काल तक वह जव रहा ऐसे मनोहर ध्यान मे आनन्द देतो सुन पडी मजीर की ध्वनि कान मे नव स्वच्छ सन्ध्या तारिका में से अभी उतरी हुई उस भक्त के ही सामने आकर खडो पुतरी हुई वह मृत्ति बोली-'भक्तवर । क्या यह परिथम हो रहा क्यो विश्व का आनद मदिर आह । तू यो खो रहा यह छोडकर सुख है पडा किसके कुहक के जाल मे सुख लेख में तो पढ रही हूँ स्पष्ट तेरे भाल मे सुन्दर सुहृद सम्पति सुखदा सुन्दरी ले साथ मे ससार यह सब सौपना है चाहता तव हाथ म फिर भागते हो क्यो? न हटता यो कभी निर्भीक है ससार तेरा कर रहा स्वागत, 'चलो सब ठीक है' उनत हुए भ्रूयुग्म फिर तो वक ग्रीवा भी हुई फिर गई आपादमस्तक लालिमा दौडी हुई 'है सत्य सुन्दरि । तव कथन, पर कुछ सुनो मेरा कहा आनद मे विह्वल हुए से भक्त ने खुलकर कहा प्रसाद वाङ्गमय ॥१६६ ॥ >