पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय खंड 1.djvu/२३१

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सरोज वरुण अभ्युदय से हो मुदित मन प्रशान्त सरसो मे खिल रहा है प्रथम पत्र का प्रसार करके सरोज अलिगन से मिल रहा है गगन मे मन्ध्या को लालिमा से किया सकुचित वदन था जिसने दिया 7 मकरन्द प्रेमियो को गले उन्ही के वो मिल रहा है तुम्हारा विकसित वदन बताता, हसे मिन को निरख के कैसे हृदय निवपट का भाव सुन्दर सरोज ! तुझ पर उछल रहा है निवास जल ही मे है तुम्हारा तथापि मिश्रित कभी न होते 'मनुष्य निलिप्त होवे कैसे'-सुपाठ तुमसे ये मिल रहा है उन्ही तरङ्गो मे भी अटल हो, जो करना विचलित तम्हे चाहती 'मनुष्य वर्त्तव्य म या स्थिर हो' ये भाव तुमम अटल रहा है तुम्हे हिलावे भी जो समीरन, तो पावे परिमल प्रमोद पूरित तुम्हारा सौजन्य है मनोहर, तरग कहकर उछल रहा है तुम्हारे केशर से ही सुगन्धित परागमय हो रहे मधुव्रत 'प्रमाद' विश्वेश का हो तुम पर यही हृदय से निकल रहा है प्रसाद वाजमय ॥१७०॥