आत्मा को सकल्पात्मक अनुभूति बनती है जो काव्य का प्रयोजनीय मूल है। इसी सत्य या श्रेय ज्ञान की किरणें नाना सस्कृतियो के दपण मे उस मूल आलोक की ऊजस्वल अभिव्यक्ति करती हैं यह अभिव्यक्ति सत्य को उसके मूल चारत्व मे सहसा ग्रहण करती प्रेयमयी होती है। ऐसी प्रतीति म भापा, देश और सस्कृति के भेद भिन प्रत्यवाय कुछ अथ नही रसते । ज्ञानानुभूति के निरपेक्ष शब्दानुवैध का सज्ञान-बोध ऐमी विशिष्ट दशा मे सम्पन्न होता है जिसमे अनुभूति केन्द्र चेतना, सवप्राणि ध्वात्मतया स्थित और अभिन प्रेमास्पदीभूता चित्कला से भाव-मयोजन की दशा मे विहार करती है और ऐसा सभी भेद भिन सस्कागे के सम्यक् विलयन के अनन्तर ही सम्भव है। प्रसाद-वाङ्गमय का प्रस्थान बिन्दु, उसका क्रम विकाम और उसकी चरम-उपलब्धि का पुजीभूत क्लेवर ऐसे उपादानी से गठित है जो, निष्ठा-पुष्ट, समसूत्रीय और प्राग्विविक्त हैं कोई पश्चाद्विचारगत- परिवत्तन-परावत्तन वहाँ अनुमेय भी नही। काव्य की मूल प्रयोजनीयता के अन्वयन मे उसके उत्स मात्मा की सकरपात्मक अनुभूति तत उसकी अभिव्यक्ति के सम्प्रेषण मे भावमाक्षात्कारानुमारी वण विकल्पचय की विधायिका सष्टि होनो अनिवाय थी चाहे उसे शैली या विधा अथवा कुछ भी कहा जाय । अपनी गरिमा मे वैसी ओजवती सष्टि अनन्यपक्षिणी होने से यदि पूण कही जाय तो कदाचित् अनुचित न होगा। काव्य शैली, चिन्तन के आयाम एक अभिनव आलोर मे यथावत् दीपित हुए। परिणामत , उनके ग्रहण प्रेपण की शैली मौलिक्ता स्वाभाविक थी उसी के सज्ञायन मे, वस्तुत निर्विवाद को वादभुक्त बना, जाने अनजाने एक नाम दे दिया गया-छायावाद । हिन्दी साहित्य मे इस आगत परिवेश से अपना तादात्म्य न कर पाने से पुरातन पेतुवाहको ने अपनी सम्पूण क्षमता से इसका विरोध क्यिा तव के अतिजिष्णु महारथी स्यात् अपने दुवलतावश छायावाद के प्रति निमम और असहिष्णु हो गये यद्यपि उनके तक स्वोच्छेदो रहे और वह विरोध प्राय विरोधमात्र के लिये ही सिद्ध हुमा, किसी सस्थापना के अथ नहीं। छायावाद को निकृष्ट और आयातित ठहराया गया। जव कि समीक्षा के उनके अपने सिद्धान्त विदेशीय अनुकृति रहे अथवा विगताय और अमायीकृत कुछ रूट मान्तायें उनक तक की आधार शिलायें बनी थी। वस्तुत उन्ही लोगो ने इस नई धाग को छायावाद पहा कदाचित् कूटत और शब्द कौशल से इसे हय बताया गया , प्राक्क्थन ॥२५॥
पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय खंड 1.djvu/२४
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