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पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय खंड 1.djvu/२५

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कदर्थना को उनकी यह अपनी साहित्यिक 'रीति' थी। क्षेमेन्द्र ने जिन कवि कोटियो का उल्लेख किया है उनमे छायोपजीवी पहले आते है- छायोपजीवी पदकोपजीवी पादोपजीवी सकलोपजीवी भवेदथप्राप्तकवित्वजीवी स्वोन्मपतो वा भुवनोपजीव्य (कविक्ठाभरण) क्सिी के दुव्यवहार को भूल जाना अथवा उसकी उपेक्षा करना यदि सवल की क्षमाशक्ति का परिचायक हो सकता है तो दुबल का पलायन भी कहा जा सकता है किन्तु वैसी दशा मे, किंवा प्राप्त कदथना से भो एक अनुकूल मवाद-मति गढ लेना उस पर विजय को परिभाषा होगी। कामायनी दृष्टि सदैव इसी दिशा म खती है 'कौन उपाय गरल को कैसे अमृत बना पावेगा' । 'विषमप्यमृतायते' को साधना म निखिल विश्व का विप' पोने वाले की करुणा से ही 'सृष्टि जियेगी फिर से' और 'विजयिनी मानवता हो जाय' चरिताथ होगा सुतराम छायावाद के कदथनाकारी सज्ञाया को प्रसाद भारती से एक अभिजात अथवत्ता मिली जिसे इस सज्ञायन अथवा नाम निरूपण का समथन नही अपितु विप का अमृतीचरण वहना अधिक ममोचीन रहेगा। निश्चय ही, प्रमाद वाङ्गमय म प्राप्त छायावाद नाम की व्याख्या उसकी स्वीकृति के अथ म ले लेना, भूल है। उसे ता प्राप्त विष म अमृतत्व देखने की चिता है किसी समथन प्रत्याख्यान को नहीं । वहा जीवन- दृष्टि यज्ञ पुस्पी रचनात्मक क्मरत है जो 'क्षणिक विनाशो म स्थिर मगल' की आर हो लगी है। एवविध हिन्दी साहित्य मे प्रवहमान इस भागीरथी के छायावाद सज्ञायन रूप गरल को अमृत रूप मे ग्रहण करने का उपक्रम है न कि प्रसाद-भारती द्वारा उसका अनुमोदन । चेतना के वैसे धरातल पर जिससे प्रसाद-भारती का आविर्भाव सम्भव है चार और उच्चार किंवा सिद्धान्त एव व्यवहार अनन्य ही रहेगे । निबन्यो मे जो सिद्धान्त-पक्ष उदित है वही वाव्य मे प्रतिफलित है व्यवहृत है । भारतीय माहित्य मे विशेषत , और अन्य मे भी सामान्यत स्वानु भूतिमयी अभिव्यक्ति विजातीय नहीं हा, कही वह लुप्त विस्मत और कही उन्मिप्ट हो प्रत्यभिज्ञात होती है। हिन्दी साहित्य का यह मोड कुछ वैसे ही प्रत्यभिज्ञान का है। यथाथवाद और छायावाद शीषक निव च मे स्पष्ट क्यिा गया है कि अभिव्यक्ति को यह विधा पूणत अपनी और भारतोय ही है प्रसाद वाङ्गमय ।। २६॥