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अविराम जीवन-स्रोत-सा यह बन रहा है शैल पर उद्देश्य-हीन गँवा रहा है समय को क्यो फैलकर कानन-कुसुम जो हैं विकसते स्वच्छ शीतल नीर से किस काय के हैं वे भला पूछो किसी मति वीर से उत्तुङ्ग जो यह शृङ्ग है उसपर खडा तरुराज है शाखावली की है महा सुपमा सुपुष्प समाज है होकर प्रमत्त खडा हुआ है यह प्रभजन-वेग मे हा! झूमता है चित्त के आमोद के आवेग मे यह शून्यता वन की बनी बेजोड पूरी शान्ति से करणा कलित कैसी कला कमनीय कोमल कान्ति से चल चित्त चञ्चल वेग को तत्काल करता धीर है एकान्त मे विश्रान्त मन पाता सुशीतल नीर है निस्तब्धता ससार की उस पूण से है मिल रही पर जड प्रकृति सब जीव मे सव ओर ही अनमिल रही प्रसाद वाङ्गमय । १८२॥