पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय खंड 1.djvu/२४४

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दलित कुमुदिनी अहो, यही कृत्रिम क्रीडासर-बीच कुमुदिनी खिलती थी हरे लता-कु जो की छाया जिसको शीतल मिलती थी इन्दु किरण की फूलछडो जिसका मकरन्द गिराती थी चण्ड दिवाकर की किरणें भी पता न जिसका पाती थी रहा घूमता आसपास मे कभी न मधुर मृणाल छुआ राजहस भी जिस सुन्दरता पर मोहित सा मत्त हुआ जिसके मधुर पराग-अन्ध हो मधुप किया करते फेरा मृदु चुम्बन-उल्लास भरी लहरी का जिस पर था घेरा शीत पवन के मधुर स्पश से सिहर उठा करती थी जो श्यामा का सङ्गीत नवीन सक्म्प सुना करती थी जो छोटी-छोटी स्वण-मछलियो का जिस पर रहता पहरा स्वच्छ आन्तरिक प्रेम भाव का रङ्ग चढा जिस पर गहरा जिसका मधुर मरन्द-स्रोत भी उछल उछल मिलता जल मे सौरभ उसका फैलाता था रम्य सरोवर निमल मे जिसका मुग्ध विकास हृदय को अहो मुग्ध कर देता था सरज पीत केसर भी खिलकर भव्य भाव भर देता था क्सिी स्वार्थी मतवाले हाथी से हा । पद दलित हुई वही कुमुदिनी, ग्रीष्मताप तापित रज मे परिमिलित हुई छिनपत्र मकरन्दहीन हो गई शोभा प्यारी है पडी कण्टकाकीण माग मे कालचक्र गति न्यारी है कानन कुसुम ॥१८३॥