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तुम्हारा स्मरण सक्ल वेदना विस्मृत होती स्मरण तुम्हारा जब होता विश्वबोध हो जाता है जिससे न मनुष्य कभी रोता आख बद कर देखे कोई रहे निराले मे जाकर त्रिपुटी मे, या कुटी बना ले समाधि मे खाये गोता खडे विश्व-जनता मे प्यारे हम तो तुमको पाते हैं तुम ऐसे सर्वत्र-सुलभ को पाकर कौन भला खोता प्रसन है हम उसमे, तेरी- प्रसन्नता जिसमे होवे अहो तृपित प्राणो के जीवन निमल प्रेम सुधा-सोता नये नये कौतुक दिखलाकर जितना दूर क्यिा चाहो उतना ही यह दौड दोडकर चचल हृदय निक्ट होता कानन कुसुम ॥१७॥