पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय खंड 1.djvu/२५०

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पतित-पावन 1 पतित हो ज म से, या कम ही से क्यो नही होवे पिता सबका वही है एक, उसकी गोद मे रोवे पतित पदपद्म मे होवे तो पावन हो ही जाता है पतित है गत मे ससार के जो स्वग से खसका पतित होना क्हो अब कौन सा वाकी रहा उसका पतित ही को बचाने के लिये, वह दौड आता है पतित हो चाह मे उसके, जगत म यह वडा सुख है पतित हो जो नही इसमे, उसे सचमुच बडा दुख है पतित ही दीन होर प्रेम से उसको बुलाता है पतित होकर लगाई धूल उस पद को न अगो मे पतित हैं जो नही उस प्रेमसागर की तरगो मे पतित हो 'पूत' हो जाना नहीं वह जान पाता है 'प्रमाद' उसका ग्रहण कर छोड दे आचार अनवन है वो सब जीवो का जीवन है, वही पतितो का पावन है पतित हाने की देरी है तो पावन हो ही जाता है कानन नि । १८९॥