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पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय खंड 1.djvu/२६५

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हृदय नहिं मेरा शूय रहे तुम नहिं माओ जो इसमें तो, तव प्रतिविम्ब रहे मिलने का आनन्द मिले नहिं जो इस मन को मेरे करुणव्यथा ही लेकर तेरी जिये प्रेम के डेरे

मिले प्रिय, इन चरणो की धूल जिसमें लिपटा हो आया है सपल सुमगल मूल बडे भाग्य से बहुत दिनो पर आये हो तुम प्यारे बैठो, घबराओ मत, वोलो, रहो नही मन मारे हृदय सुनाना तुम्हे चाहता, गाथाएं जो बीती गद्गद कठ, न कह सकता हूँ, देसी वाजी जीती

उ, परम आदश विश्व का जो कि पुरातन अनुकरणो का मुख्य सत्य जो वस्तु सनातन मता का पूर्ण रूप आनन्द भरा धन शक्ति-सुधा से सिंचा, शाति से सदा हरा वन प्रकृति से परे नही जो हिलामिला है सन्मानस के बोच क्मल सा नित्य खिला हे [ की चित्कला विश्न म जिसकी सत्ता जिसकी ओतप्रोत व्योम मे पूण महत्ता भूति का साक्षी है जो जड का चेता विश्वशरीरी परमात्मा प्रभुता का वेतन अणु म जो स्वभाव-वश गति विधि निर्धारक नित्य नवल-सम्बन्ध-मूत्र का अद्भुत कारक विज्ञानावार है, ज्ञानो का आधार है नमस्कार सदनन्त को ऐसे बारम्बार है समय ॥२०६॥