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पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय खंड 1.djvu/२६४

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मकरन्द-बिन्दु तप्त हृदय को जिस उशीर-गृह का मलयानिल शीतल करता शीघ्र, दान कर शान्ति को अखिल जिसका हृदय पुजारी है रखता न लोभ को स्वय प्रकाशानुभव मूत्ति देती न क्षोभ जो प्रकृति सुप्राङ्गण मे सदा, मधुक्रीडा-कूटस्थ को नमस्कार मेरा सदा, पूरे विश्व-गृहस्थ को

हैं पलक परदे विचे बस्नी मधुर आधार से अश्रुमुक्ता की लगी झालर खुले इंग-द्वार से चित्त-मन्दिर मे अमल आलोक कैसा हो रहा पुतलिया प्रहरी बनी जो सौम्य आकार से मुद मृदङ्ग मनोज्ञ स्वर से बज रहा है ताल में कल्पना-वीणा बजो हर एक अपने तार से इन्द्रिया दामी सदृश अपनी जगह पर स्तब्ध हैं मिल रहा गृहपति सदृश यह प्राण प्राणाधार से

कानन कुसुम ॥२०५॥