पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय खंड 1.djvu/२६८

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. सोते अभी खग-वृन्द थे निज नाड म आराम स ऊपा अभी निक्ली नही थी रविकरोज्ज्वल-दाम से केवल टहनिया उच्च तरुगण की कभी हिलती रही मलयज पवन से विवश आपस मे कभी मिलती रही ऊँचे शिखर, मैदान, पणकुटीर, मब निस्तब्ध थे सब सो रहे, जैसे अभागो के दुखद प्रारब्ध थे झरने पहाडी चल रहे थे, मधुर मीठी चाल से उडते नही जलकण अभी थे उपलग्वण्ड विशाल से आनन्द के आसू भरे ये, गगन मे तारावली यो देखती रजनी बिदा होते निशाकर को भली कलियाँ कुसुम की थी लजाई प्रथम स्पश शरीर से चिटकी बहुत जब छेडछाड हुआ समीर अधीर से थी शान्तिदेवी सी खडी उस ब्राह्मवेला मे भली मन्दाकिनी शुभ तरल जल के बीच मिथिलाधिप लली रजलिप्त स्वच्छ शरीर होता था सरोज-पराग से जल भी रंगा था श्यामलोज्ज्वल राम के अनुराग से जलविन्दु थे जो वदन पर, उस इन्दु मन्द प्रकाश मे द्रवचन्द्रकान्त मनोज्ञ मणि के बने विमल विलास मे आफ्ण्ठ मज्जित जानकी चन्द्राभमय जल मे खडी सचमुच वदन विधुथा शरद-धन बीच जिसकी गति अडी जल की लहरिया घेरती वन मेघमाला सी उसे हो पवन-ताडित इन्दु कर मलता निरख कर जिसे पर स्नान पणकुटीर को अपने सिधारी जानकी तव कजलोचन के जगाने की क्रिया अनुमान की रविवर-सहा हेमाभ उंगली से चरण सरसिज छुआ उनिद्र होने से लगे दृगकज, कम्प सहज हुआ उस नित्यपरिचित स्परा मे राघव सजग हो जग गये होर निरालस नित्यकृय सुधारने मे लग गये फलमूल लेने के लिए तर जानकी तम्-पुज्ज म सञ्चारिणी ललिता लता सो सो गई धन कुञ्ज मे कानन कुसुम ॥२११॥