पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय खंड 1.djvu/२७७

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वीर वाहद्रथ बली शिशुपाल के सुन सन्धि को और भी साम्राज्य स्थापन की महा अभिसन्धि को छोडकर व्रज, बालक्रीडा भूमि, यादव-वृन्द ले द्वारिका पहुँचे, मधुप ज्यो सोज ही अरविन्द ले सख्यस्थापन कर सुभद्रा को विवाहा पाथ से आप समभागी हुए तब पाण्डवो के स्वाथ से वीर वाहद्रथ गया मारा कठिन रणनीति से आप सरक्षक हुए फिर पाण्डवो के, प्रीति से केन्द्रच्युत नक्षत्रमण्डल से हुए राजन्य ये आन्तरिक विद्वेप के भी छा गये पजन्य थे दिव्य भारत का अदृष्टाकाश तमसाच्छन था मलिनता थी व्याप्त कोई भी कही न प्रसन्न था सुप्रभात किया अनुष्ठित राजसूय सुरीति से हो गई कपा अमल अभिषेक-जलयुत प्रीति से धमराज्य हुआ प्रतिष्ठित घमराज नरेश थे इस महाभारत गगन के एक दिव्य दिनेश थे यो सरलता से हुआ सम्पन कृष्ण प्रभाव से देखकर वह राजसूय जला हृदय दुर्भाव से हो गया सनद्ध तव शिशुपाल लडने के लिये और था ही को। केशव सङ्ग अडने के लिए यी बडी क्षमता, सही इससे बहुत सी गालिया फूल उतने ही भरे, जितनी बडी हा डालिया क्षमा करते, पर लगे काँटे खटक्ने और को चट धराशायी क्यिा तब पाप के शिरमौर का पाडवोका देख वैभव नीच कौरवनाथ ने चूत-रचना की, दिया था साथ शकुनी-हाथ ने कुटिल के छल से छले जाकर अकिञ्चन हो गये हारपर सवस्व पाण्डव विपिनवासी हो गये कष्ट से तेरह वरम कर वास कानन कुल्ज म छिप रहे थे सूय से जो वीर वारिद-पुज म वृष्ण मारत का सहारा पा, प्रक्ट होना पड़ा क्म के जल मे उन्हे निज दुम सर धोना पड़ा - प्रसाद वाङ्गमय ॥२२० ।