पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय खंड 1.djvu/२७८

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

, आप अध्वय्थू हुए, ब्रह्मा युधिष्ठिर को किया काय होता का धनञ्जय ने स्वय निज कर लिया धनुष की डोरी बनी उस यज्ञ मे सच्ची सुवा उम महारण-अग्नि मे सब तेज बल ही घी हुवा बध्य पशु भी था सुयोधन, भागवादिक मन थे भीम के हुकार ही "उद्गीथ के सब नत्र थे रक्त-दु शासन बना था सोमरस शुचि प्रीति से कृष्ण ने दीक्षित क्यिा था धनुर्वैदिक रीति से कौरवादिक सामने, पीछे पृथासुत सैन्य है दिव्य रथ है बीच मे, अजु न-हृदय मे दैन्य है चित्र हैं जिसके चरित, वह कृष्ण रथ के सारथी चित्र ही से देखते यह दृश्य वीर महारथी माहिनी वशी नहीं है, कज कर मे माधुरी रश्मि है रथ की, प्रभा जिसम अनोखी है भरी शुद्ध सम्मोहन बजाया वेणु से प्रजभूमि में नीरधर सी धीर ध्वनि का शव अब रणभूमि में नील, तनु के पास ऐसी शुभ्र, असो की छटा उड रहे जैसे बलाका, घिर रही उन पर । स्वच्छ। छायापथ समीप नवीन नीरद-जाल है या खडा भागीरथी तट फुल्ल नील तमाल है छा गया फिर मोह अजुन का, न वह उत्साह था अन्त करण में कारण्य-नीर प्रवाह 'क्यो करे वध वीर निज कुल का सडे से स्वाथ से क्म यह अति घोर है, होगा नही यह पाथ से कृष्ण केवल सारथी ही थे नही रथ के वहाँ सव्यसाची का मनोरथ भी चराते थे वहाँ जानकर यह भाव मुस पर कुछ हंसी सी छा गई दन्त-अवली नोल घन की वारिधारा सी हुई कृष्ण ने हँसकर कहा-"कैसी अनोखी बात है रण विमुख होवें विजय । दिन में हुई क्व रात है यह अनार्या की प्रथा सीखी कहाँ से पार्थ ने धमच्युत होना बताया एक छोटे स्वाथ ने घटा १ काम्य था कानन कुसुम ॥२२१॥