पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय खंड 1.djvu/२८५

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

हो होकर तरुराजी से लिपटी रहे कृष्णवर्ण के आश्रय होकर स्थित रहें घन | घेरो आकाश नीलमणि-रङ्ग से जितना चाहो, पर अब छिपने को नही नवल ज्योति वह, प्रकटित होगी जो अभी भव-बन्धन के खुलो किवाडो शीघ्र ही परम प्रबल आगमन रोक सक्ती नही यह शृखला, तुम्हारे मे है जो लगी दिव्य,अलौक्कि हपं और आलोक का- स्वच्छ स्रोत खर वेग सहित बहता रहे खल-हग जिसको दख न सके, न सहसकें o जलदजाल सा शीतलकारी जगत् को विद्युतॄन्द समान तेजमय ज्योति वह प्रकट हुई, पपिहापुकार-सा मधुर औ'- मनमोहन आनन्द विश्व म छा गया वरस पड़े नव नीरद मोती औ' जुही प्रमाद वाङ्गमय ।। २२८॥