पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय खंड 1.djvu/२९६

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दो बूंदें शरद का सुन्दर नीलाकाश, निशा निखरी, था निमल हास, बह रही छाया पथ म स्वच्छ सुधा सरिता लेती उच्छ्वास । पुलक कर लगी देखने धरा, प्रकृति भी सकी न आँखें मूंद, सुशीतलकारी शशि आया, सधा की मनो बडी सी बूंद । - हरित किसलयमय कोमल वृक्ष, झुक रहा जिसका पाकर भार, उसी पर रे मतवाले मधुप वैठकर करता तू गुजार । न आशा कर तू अरे । अधीर, कुसुम रज-रस ले लूंगा गेंद, फूल है नन्हा सा नादान, भरा मकरन्द एक ही बूँद । झरना ।। २३९॥