पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय खंड 1.djvu/२९५

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ये बक्मि भ्रू युगल, कुटिल कुन्तल घने, नील नलिन से नेत्र चपल मद से भरे, भरुण राग रजित कोमल हिम सण्ड से- सुन्दर गोल पाल, सुढर नासा बनी। धवल स्मिति जैसे शारद घन बीच मे-- ( जो कि कौमुदी से रजित है हो रहा ) चपला-सी है, ग्रीवा हमी सो बढी । स्प जलधि मे लोल लहरियां उठ रही। मुक्तागण हैं लिपटे कोमल कम्बु म । चञ्चल चितवन चमकीली है कर रही- सृष्टि मात्र को, मानो पूरी स्वच्छता- चीनाशुक बनकर लिपटी है अङ्ग मे। अस्त-व्यस्त है वह भी ढंक ले कौन-सा- अङ्ग, न जिसम कोई दृष्टि लगे उसे । सिंचे हुए वे सुमन सुरभि मकरन्द से- पल तितलियो के करते है व्यजन से। प्रसाद वाङ्गमय १२३८॥