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वसन्त की प्रतीक्षा परिश्रम करता हूँ अविराम, वाता हूँ क्यारी औ कुज । सीचता हग-जल से सानन्द, खिलेगा कभी मरिलका पुज । न कांटो को है कुछ परवाह, सजा रखता हूँ इन्हे सयल। कभी तो होगा इनमे फूल, सफर हागा यह कभी प्रयत्न । कभी मधु राका देख इसे, करेगी इठलाती मधुहास । अचानक फूल खिल उठेगें, कुज होगा मलयज-आवास । नई कोपल म से कोकिल, कभी किलकारेगा सानन्द । एक क्षण बैठ हमारे पास, पिला दोग मदिरा-मारन्द । मूक हो मतवाली ममता, खिले फूलो से विश्व अनन्त । चेतना बने अधीर मिलिद, माह वह भावे विमल वसत ।। झरना ॥२४१॥