पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय खंड 1.djvu/३०८

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अर्चना वीणे । पचम स्वर मे बज कर मधुर मधु बरसा दे तू स्वय विश्व मे आज तो। उस वर्षा मे भीगे जाने से भला लौट चला आवे प्रियतम इस भवन मे। आश्रय ले मेरे वक्षस्थल में तनिक । लज्जे । जा, वस अव न सुनू गो एक भी- तेरी वातो म से, तूने दुख दिया, रुष्ट हो गये प्रियतम, और चले गये। यह फैसा सकोच, मन | तुये क्या हुआ वही वही अभिलापायें इस हृदय ने सचित की यों इस छोटे भाण्डार में, लज्जावती लता सा होकर सकुचित- जो अपने ही में छिप जाना चाहता। यदि साहस हो, उसे सोल कर दा लो, मन मन्दिर में नाय हमारी 'अचना' हुई उपक्षित तुमसे, हँसतो है हमें। 1 शरना