पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय खंड 1.djvu/३२१

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पी। कहा ? पर बोलता है पपीहा- 'हो भला प्राणधन, तुम कही-हा 1 आ मिलो हो जहाँ । पी। कहा ? पी 1 कहाँ? प्यास से मर रहे दीन चातक क्या बना चाहते प्राण घातक श्यामघन हो कहा? पी। कहाँ? पी। कहा नभ-हृदय में घिरी मेघमाला चञ्चला कर रही है उजाला ॥ देख लें, हो कहाँ ? पी! कहाँ? पीकहाँ ? जलमयी हो रही यह धरा है। कण्ठ फिर भी न होता हरा है।। प्यास मे जल रहा। पी। कहां? पी। कहा? "प्यास कैसो तुम्हारी? पपीहा । कम न हो कर बढी जा रही हा लो, वही कह रहा- पी। कहा? पी । कहाँ ? 701 . प्रसाद वाङ्गमय ॥२६४॥