पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय खंड 1.djvu/३२०

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

मौन थे सुनकर मेरा प्रश्न, "सदा यह बनी रहेगी भली।" कंटीला था गुलाब चैती, उठी चटचटा उसी की कली। उपा आभास चन्द्रिका मे, पवन परिमल-परिपूरित सङ्ग। बढ रही थी प्राची मे वह, बदलता था नभ का कुछ ढङ्ग।। कहा व्याकुल हो मैने भी, तुम्हारे कोमल कर से वही- चाहता पीना मै प्रियतम, नशा जिसका उतरे ही नहीं ॥ हृदय की बात नवीन कली- सदृश हम खोल कह चुके हाय फुरल मरिलका सदृश वह भी, चुप रहे जीवनधन मुसक्याय ॥ झरना ॥ २६३॥